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Essay on Valmiki in Sanskrit महर्षि वाल्मीकि पर संस्कृत निबंध | DailyHomeStudy

Essay on Valmiki in Sanskrit: महर्षि वाल्मीकि पर संस्कृत निबंध – कहते हैं कि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति की 9वीं संतान वरुण और पत्नी चर्षणी के घर हुआ था। बचपन में भील समुदाय के लोग उन्हें चुराकर ले गए थे और उनकी परवरिश भील समाज में ही हुई। वाल्मीकि से पहले उनका नाम रत्नाकर हुआ करता था। रत्नाकर जंगल से गुजरने वाले लोगों से लूट-पाट करता था।

एक बार जंगल से जब नारद मुनि गुजर रहे थे तो रत्नाकर ने उन्हें भी बंदी बना लिया। तभी नारद ने उनसे पूछा कि ये सब पाप तुम क्यों करते हो? इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया, “मैं ये सब अपने परिवार के लिए करता हूं।” नारद हैरान हुए और उन्होंने फिर उससे पूछा क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे पापों का फल भोगने को तैयार है।

रत्नाकर ने निसंकोच हां में जवाब दिया। तभी नारद मुनि ने कहा इतनी जल्दी जवाब देने से पहले एक बार परिवार के सदस्यों से पूछ तो लो। रत्नाकर घर लौटा और उसने परिवार के सभी सदस्यों से पूछा कि क्या कोई उसके पापों का फल भोगने को आगे आ सकता है? सभी ने इनकार कर दिया। इस घटना के बाद रत्नाकर काफी दुखी हुआ और उसने सभी गलत काम छोड़ने का फैसला कर लिया। आगे चलकर रत्नाकर ही महर्षि वाल्मीकि कहलाए।

यहां पर हम महर्षि वाल्मीकि पर संस्कृत निबंध शेयर कर रहे हैं जो सभी विद्यार्थियों के लिए मददगार साबित होगा।

महर्षि वाल्मीकि पर संस्कृत निबंध Essay on Valmiki in Sanskrit

वाल्मीकिः (Sanskrit Essay on Valmiki)

वाल्मीकिमहर्षिः श्रीमद्रामायणस्य कर्ता। अयम् आदिकविरित्युच्यते। अस्य पिता प्रचेताः। रत्नाकरः इति वाल्मीकेः मूलं नाम। प्रचेतसः पुत्रः इति कारणेन प्राचेतसः इति अस्य अपरं नाम। जन्मना अयं व्याधः आसीत्। रत्नाकरः अरण्यमार्गे गच्छतः जनान् भाययित्वा चौर्यं कृत्वा जीवति स्म। एकदा तस्मिन् मार्गे नारदमहर्षिःसमागतः। नारदमहर्षिं दृष्ट्वा चौर्यं कर्तुं रत्नाकरः तत्सकाशं गतवान्। रत्नाकरः यथार्थमवगच्छति। ज्ञानोदयः सञ्जायते।

रावणवधानन्तरं कस्यचन रजकस्य वचनं श्रुत्वा रामेण सीता परित्यक्ता। तस्मिन्नवसरे वाल्मीकिमुनेः आश्रमे सीता आश्रिताऽभूत्। आश्रमे एव कुशलवयोः जननमभवत्। बालकयोः शस्त्राभ्यासः शास्त्राभ्यासश्च वाल्मीकिमुनिना एव कारितः। अपि च बालकौ समग्रं रामायणं कण्ठस्थीकृतवन्तौ। एकदा वाल्मिकिमहर्षिः शिष्येण भारद्वाजेन सह स्नानार्थं तमसानदीं प्रति गतवान् आसीत्। स्वप्रियतमस्य वियोगेन बहु दुःखितां पक्षिणीं दृष्ट्वा आर्द्रचित्तः वाल्मीकिः झटिति तस्मै व्याधाय शापं प्रायच्छत्। तस्य मुखात् शापः श्लोकरूपेण निःसृतः।

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